2004 में ईसी चिन्नैया मामले में सुप्रीम कोर्ट के ही पांच जजों की एक पीठ ने इससे विपरीत फैसला देते हुए कहा था कि एससी/एसटी में उपवर्गीकरण का राज्यों को अधिकार नहीं है। जस्टिस अरुण मिश्र की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने कहा कि समान क्षमता वाली दो पीठ के विपरीत फैसलों को देखते हुए मुख्य न्यायाधीश से मामले को सात जजों या उससे बड़ी पीठ के समक्ष विचार के लिए लगाने का आग्रह करते हैं। जस्टिस अरुण मिश्र, इंदिरा बैनर्जी, विनीत सरन, एमआर शाह और अनिरुद्ध बोस की पीठ ने 78 पेज के विस्तृत फैसले में कहा कि बदलती सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखे बगैर सामाजिक बदलाव के संवैधानिक उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
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संपादकीय : आरक्षण की विसंगतियां
’>>अपने 2004 के फैसले की समीक्षा करेगी शीर्ष अदालत
’>>समान क्षमता की दो पीठ के अलग फैसलों के बाद बड़ी पीठ में जाएगा मामला
एससी/एसटी में वर्गीकरण
सबसे निचला तबका जिसके पास आरक्षण का लाभ नहीं पहुंचा है, उसे बराबरी पर लाने की आकांक्षा अभी भी सपना है। अभी भी विभिन्न जातियां वहीं हैं, जहां पहले थीं। वे अभी भी बराबरी पर नहीं हैं। क्या अनंतकाल तक पिछड़े रहना उनकी नियति है?
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
यह है मामला
पंजाब सरकार ने अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीटों में से 50 फीसद ‘वाल्मिकी’ एवं ‘मजहबी सिख’ को देने का प्रावधान किया था। 2004 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आधार बनाते हुए पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी थी। इस फैसले के खिलाफ पंजाब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी।
अदालत ने यह भी कहा
’ राज्य सरकार को आरक्षण देने और उसे बराबरी से बांटने का अधिकार है। वह दूसरों को लाभ से वंचित किए बगैर अनुसूचित जाति में ज्यादा पिछड़े वर्ग को तरजीह देते हुए लाभ देने का तौर तरीका तय कर सकती है
’ किसी वर्ग को वरीयता देने के लिए तय आरक्षित कोटे से एक निश्चित हिस्सा देना अनुच्छेद 341, 342 और 342ए के तहत सूची का उल्लंघन नहीं माना जाएगा क्योंकि सूची में शामिल किसी भी जाति को वंचित नहीं किया गया है
’ अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग जिसे आरक्षण के लाभ से वंचित नहीं किया गया है, आरक्षण के निश्चित हिस्से या पूरे हिस्से का दावा नहीं कर सकते